विजेता " रघुवीर सहाय।

 सौर का कमरा उस गन्ध से भरा हुआ था जो सुलगती हुई अजवाइन और कड़वे तेल के दीये से मिलकर बनती है और वह साफ़ पुराने कपड़ों में लिपटी हुई लेटी थी । वह दरवाजे पर आकर रुक गया, वह वहाँ होगी, उसे जो कुछ हुआ है उसके बाद कैसी और कितनी बदली हुई और वह भी वहाँ होगा जिसे अनेक बार उसने कामिनी के शरीर में अनुभव किया है अपने और उसके बीच और उन दोनों से स्वतन्त्र। क्या वह जानता होगा कि मैंने उसके साथ क्या किया है ? ‘‘ मैं उसे देखने को लालायित हूँ। जानते हुए कि मैंने उसे नहीं चाहा था और है वह फिर भी है'', अशोक ने कहा, “उसने मुझे क्षमा कर दिया है क्योंकि मेरे मन में उसके लिए सिर्फ़ प्यार है अगर प्यार का शब्द ज़रा भी व्यक्त कर सकता है जो मेरे मन में है। "       

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वे दोनों अभी कुछ वक़्त तक सन्तान नहीं चाहते थे। दोनों के कारण अवश्य अलग-अलग रहे हों पर उसका क्या महत्त्व है क्योंकि अपने शरीर के इस्तेमाल के बारे में दोनों के विचार निश्चित थे। उसने भी न चाहा था कि ऐसा हो पर असावधानी से जो कुछ हो गया था वह अन्ततः उसके ही कारण हुआ था और उसकी संगिनी गर्भवती थी। यह मैंने किया है और यह स्त्री मेरी स्त्री है, वह इसे नहीं चाहती है और मैं जो कि उससे ज्यादा ताक़तवर हूँ इसका कारण हूँ। “सब ठीक हो जाएगा, " हँसकर उसने कहा। एक भयंकर-सी बोतल उसने निकाली कत्थई-सी तीखी गन्धवाली चीज़ थी - सूँघा और आँखें आधी बन्द कर बोला, "तबीयत ख़ुश हो जाएगी और छुट्टी मिल जाएगी ।"

दो दिन तक कामिनी का सारा शरीर जलता रहा जैसे गहरे अन्दर किसी अँगीठी में आग जला दी गई हो। वह चुपचाप प्रतीक्षा करती रही। कभी-कभी आँख खोलकर देखने की कोशिश करती, मगर चारों ओर केवल लाल-लाल दिखाई देता। क्या शुरू हो गया ? वह सोचती, पर फिर अन्दर सब ठस हो जाता जैसे कोई तनकर खड़ा हो जाता है और वह झपक जाती। दो दिन बाद वह चोर की तरह उठी, बोली नहीं और काम में लग गई और कुछ दिन ऐसे ही बीत गए ।

'कुछ फ़ायदा नहीं हुआ ?" अशोक ने पूछा, “मुझसे तो कहा गया था कि यह काफ़ी होगी मगर शायद तुम्हें इससे ज्यादा तेज़ कुछ चाहिए।"वह मुसकराया जैसे औरत को गुदगुदा रहा हो।

"मैं सब ठीक कर दूंगा, तुम डरो नहीं । "

"तुम कर ही क्या सकते हो ?" वह बोली ।

“क्यों, जब मैं एक काम कर सकता हूँ तो दूसरा भी कर सकता हूँ।" कितना गन्दा इसका मुँह है, कामिनी ने सोचा और उसका जी मिचलाने लगा।

"तुम घबराती क्यों हो? सिर्फ़ तुम्हें थोड़ी-सी तकलीफ़ होगी।"

इस बार कुछ निरीह सफ़ेद टिकियाँ थीं और फिर चार दिन तक कामिनी जबरदस्त बुखार उड़ जाए। और कुछ देर के लिए उसे लगा कि वह शून्य में चली गई है, कई बार वह वहाँ में तड़पती रही। चिड़िया की तरह मुँह खोलकर वह हाँफती और उसका जी चाहता कि वह से गिरी और उसकी चेतना लौटी मगर वह उस चीज को लिये हुए पड़ी रही जो उसके भीतर खौलती हुई धातु की तरह सब तरफ़ को दौड़ रही थी और बाहर नहीं आ रही थी।" ईश्वर ने मुझे बचा लिया, " उसने कहा।

"बेवकूफ़ी की बात, " अशोक बोला, "यह तकलीफ़ तुम्हारा शरीर झेल ले गया क्योंकि वह मज़बूत था।"

सचमुच क्या यह सब कष्ट उसी ने उठाया था? कामिनी सोचने लगी, अकेले वह निश्चय ही नहीं उठा सकती थी। " मैं मरूँगी नहीं, "उसने कहा, "क्योंकि अब मैं मरना नहीं चाहती।"

"तुम मरोगी नहीं, सिर्फ़ डाक्टर के यहाँ एक बार चलना होगा।"

'नहीं, नहीं, " उसने कहा, "मैं नहीं जाऊँगी।"

"सिर्फ एक बार थोड़ा कष्ट होगा और सब ठीक हो जाएगा।'

"नहीं, नहीं, " कामिनी ने कहा, "अपने लिए मैं कह सकती हूँ कि कष्ट हो पर किसीब्दूसरे के लिए कैसे यह तय कर सकती हूँ? मैं अब तुम्हें कुछ न करने दूँगी, " वह बोली।

"बेवकूफ़, अभी तो उसमें जान भी नहीं पड़ी।"

पर वह है, " कामिनी ने कहा, "एक चीज़ थी जिसे तुम नष्ट कर देना चाहते थे औरब्वह नष्ट नहीं हुई, यह प्रमाणित करते हुए कि वह है। मैं जानती हूँ कि वह है और दो बारब्तुम उस पर आक्रमण कर चुके हो और यह उन्हें बचा गया है।" कितना विरोध किया होगाब्उसने. कामिनी ने सोचा और तरस खाकर अपने पति की ओर देखा।" मैं जानती हूँ कि तुम उससे ज्यादा ताक़तवर हो, पर तुम हार गए हो। अब तुम उसे रहने दो, " उसने कहा, "क्योंकि  उसका होना आरम्भ हो गया है." और मन में जोड़ा वह होगा और तुम्हें क्षमा कर देगा।

अशोक ने एक पैर रखकर अन्दर झाँका। सामने केवल सरसों के तेल का प्रकाश था औरब्एक विशेष प्रकार की स्वच्छता थी, दोनों एक-दूसरे से संयुक्त और जीवित कहाँ हैं वे, उसने अपने से पूछा। अभी कल तक वह उसे अपने साथ-साथ उस क्षण तक लाई थी जिसे केवलब्वह ही अनुभव कर सकती थी; घंटों वे अपने बचपन के किस्से एक-दूसरे को सुनाया करते थे और वह भारी और थकी, निर्मल और शान्त बैठी रहती थी। “तुम मेरे पास ही कहीं रहना,"उसने कहा था। " ज़रूर, " अशोक ने कहा था, बिना रत्ती भर भी जाने हुए कि क्यों; पर उसके लिए और कोई दूसरी जगह हो ही नहीं सकती थी, उसने सोचा। और अन्ततः वह वहाँ था,पास ही और उस अनुभव से अपने में गुजरता हुआ जिसमें से उसकी पत्नी अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ गुजर रही थी।

उसने दो क़दम बढ़ाए। वे वहाँ हैं। अपने बड़े-से शरीर को कई जगह से मोड़ते हुए तिपाई पर बैठ गया। कामिनी इस तरफ़ पीठ किए लेटी थी। वह है मेरी स्त्री, कितनी सुन्दर और नई, पर वही, मेरी पत्नी। उसका दिल चाहा कि यह अन्तर जो हम दोनों के बीच है हमेशा-हमेशा के लिए बना रह जाए।अचानक उसे अपने बच्चे की याद आई। "देखूँ देखूँ!" उसने कहा। कामिनी ने सिर घुमाकर देखा। पहले तो वह लजाई और बच्चे की तरफ मुँह कर लिया। जैसे छिप रही हो पर फिर चिढ़ाती हुई-सी उसके पिता को देखने लगी। "क्या, मुझमें क्या ख़ास बात है ?" अशोक बोला।

नहीं सिर्फ़ देख रही हूँ कि आदमी कैसा दिखता है, कामिनी ने मन में कहा औरब्बच्चे के मुँह पर से आँचल हटा दिया।

कुछ अशोक का दिल बुरी तरह धड़कने लगा। वह कैसा होगा ? प्रसन्न ? या याद रखे हुए कि मैंने क्या किया है ? क्या उसने मुझे क्षमा कर दिया है ? मुझे क्षमा कर दो, उसने कहा और उसका चेहरा खिल उठा। यह लाल मुट्ठियाँ बन्द किए हुए और उसकी स्त्री का स्तन मुँह में लिये वह अनायास अपना अधिकार भाग रहा था। न, उस पर कहीं कोई निशान न था, न कोई खरोंच या दाग, कुछ नहीं। जीता हुआ आदमी है, अशोक ने कहा और हँसी रोकने से उसका चेहरा दीप्त हो उठा। लड़के ने अपने बाप की ओर देखा ही नहीं, न कुछ समझा कि यह कौन है और क्या चाहता है। उसे ज़रूरत भी न थी। आँखें बन्द किए वह निस्पृह भाव से अपना काम करता रहा और कद्दू जैसा पड़ा रहा। उसने एक लड़ाई जीत ली थी और वह वहाँ था, अक्षत और सम्पूर्ण जैसा कि वह दूसरों के बावजूद बना था और कुल इतने से ही उसे फ़िलहाल मतलब था।

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